ગુરુવાર, 27 નવેમ્બર, 2008

दिल

जिंदगी के इस
चौराहे पर अब
हम निकल चुके हैं
एक-दूसरे से बहुत दूर।
चाहकर भी नहीं
आ पाएँगे पास और पास
क्या करें और
कया न करें
यही सोचकर
मैं हूँ असमंजस में।
बहुत ही हैरान हूँ
परेशान हूँ,
अपने दिल को लेकर
कि क्या कोई इतना
चाहने वाला कभी
इतना बड़ा धोखा
कैसे कर सकता है,
कैसे दे सकता है
वो धोखा,
अपने दिल और दूसरे
को भी।
क्या कभी उसका
ज़मीर उसे धिक्कारता नहीं
यह कहकर कि
ये बेवफा, ये तूने
क्या किया, अपने साथ
अपने दिल और
अपने उस अजीज के साथ
जिसकी एक आवाज पर,
एक इशारे पर
तू अपनी जान लुटा
देने को थी तैयार
हर समय, हर पल,
हर घड़ी।

ऐसे में क्या कोई
करेगा तेरा ऐतबार
तू तो वो है
जो न जीने देते हैंऔर
न जीने की राह दिखाते हैं।

ऐ मेरे हमसफर
कुछ तो खयाल कर
उन शब्दों, उन लम्हों का
जिसके लिए मेरे पास
नहीं बचे हैं कुछ शब्द... !